Wednesday, 26 March 2008

Ye Bihai Ja Raha hai :

बिहारी सिर्फ़ वही हैं जो बिहार में रह गए हैं या बिहार से बाहर निकलकर भी ग़रीब हैं या फिर जिनकी बोली चुगली कर देती है, बाक़ी लोगों का बिहारी होना या न होना स्वैच्छिक है. जिन्होंने पद पा लिया है, पैसा कमा लिया है, अँगरेज़ी साध ली है... उन्हें बिहारी कौन बुलाता है? उनसे कहा जाता है, 'तो आप बिहार से हैं.'

बिहारी होना और बिहारी बुलाया जाना दो अलग-अलग बातें हैं. बिहारी कहा जाना भौगोलिक-सांस्कृतिक-भाषायी पहचान से बढ़कर एक सामाजिक-आर्थिक टिप्पणी है. दिल्ली में छत्तीसगढ़ का मज़दूर, बंगाल का कारीगर, उड़ीसा का मूंगफलीवाला, बंदायूँ का गुब्बारेवाला... सब बिहारी हैं. बिहारी होने का फ़ैसला अक्सर व्यक्ति के पहनावे, रोज़गार और हुलिए से होता है, पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि व्यक्ति कहाँ का रहने वाला है.

कुछ लोग अपना 'श' दुरुस्त करके, बस और रेल को 'चल रहा है' की जगह यत्नपूर्वक 'चल रही है' कहकर बिहारी बिरादरी से तुरत-फुरत नाम कटाना चाहते हैं (झारखंड बनने से ढेर सारे लोगों को स्वतः आंशिक मुक्ति मिल गई). दुसरी ओर लाखों-लाख लोग ऐसे हैं जो बिहारी न होकर भी बिहारी होने के 'आरोप' को ग़लत नहीं ठहरा सकते, उसके लिए उन्हें अपनी क़िस्मत बदलनी होगी.

बिहार में जन्मे-पले-बढ़े ज्यादातर लोगों पर उनका प्रांत किसी और राज्य के लोगों के मुक़ाबले कुछ ज्यादा ही सवार रहता है. वजह बहुत साफ़ है, बिहारी होने के साथ जिस सामाजिक-आर्थिक कलंक का भाव जुड़ा है उससे कौन पीछा नहीं छुड़ाना चाहेगा? जो किसी वजह से छुड़ा नहीं पाएगा वह ज़रूर झल्लाएगा और यह झल्लाहट कभी बिहारी होने के उदघोष में, कभी दूसरे राज्यों के लोगों की बुराई करने में और कभी बिहार को ही बढ़-चढ़कर कोसने में प्रकट होती है.

जैसे माँ-बाप की हैसियत से तय होता है कि रिश्तेदार उनके बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे उसी तरह राज्यों की आर्थिक हैसियत से तय होता है कि उसके बाशिंदों से दूसरे राज्य के लोग कैसा व्यवहार करेंगे. ग्लोबल स्तर पर यही सिद्धांत लागू होता है. ग़रीब का कुछ भी अनुकरणीय नहीं होता, न उसकी भाषा, न उसका खान-पान. आग में भुनी हुई नाइजीरियाई मछली को देखकर लोग मुँह बिचकाते हैं और जापान की कच्ची मछली वाली सुशी खाते ही लोगों को जापानी सिंपलिसिटी की ब्यूटी समझ में आ जाती है. लोग फ्रेंच सीखते हैं, स्वाहिली नहीं.

बिहार भारत के लिए वैसा ही है जैसा भारत बाक़ी दुनिया के लिए, बड़ी आबादी, पिछड़ापन, जात-पात, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार वगैरह. मैं जानता हूँ कि जिन्हें भारत पर गर्व है लेकिन बिहार को कलंक मानने का आसान रास्ता अपनाते हैं, उन्हें यह वाक्य पसंद नहीं आएगा. राष्ट्रवाद जैसी अमानवीय और सत्तापोषित अवधारणा का ही विकृत रूप है प्रांतवाद या क्षेत्रवाद, इसकी सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह व्यक्ति के ऊपर प्रांत और राष्ट्र को जबरन लाद देती है, जन्म के आधार पर, ठीक जाति की तरह.

बिहारी होना एक लांछन है, यह हर बिहारी जानता है, अलग-अलग लोग इससे अपने-अपने तरीक़े से निबटते हैं. बिहारी होने की अपनी कुंठाएँ भी हैं, हीनभावना भी है. इसका ये मतलब नहीं है कि बिहार के लोग अपनी करनी के लिए जवाबदेह नहीं हैं, उन्हें बिहारी होने के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता लेकिन बिहार की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक अनीति-कुनीति का जवाब तो उन्हें नागरिक और मतदाता के रुप में देना ही होगा, उसे स्वीकार करना होगा, उसे ठीक करना होगा.

पंजाब की दरियादिली पाँच नदियों की देन और हरित क्रांति की उपज है तो बिहार का संयम और संघर्ष सूखे और सामंतवाद की पैदाइश. सबका अपना इतिहास, भूगोल, समाज, अर्थतंत्र और संस्कृति है और उसे पूर्णता में समझना चाहिए. बिहार की तरह सारे ऐब कमोबेश देश के सारे राज्यों में हैं लेकिन वे उनकी बेहतर आर्थिक स्थिति, कम आबादी वग़ैरह के कारण छिप जाते हैं.

बिहार का संकट सिर्फ़ छवि का नहीं बल्कि एक जटिल संकट है, क्या भारत का संकट पिछले दशक तक जटिल नहीं था. अब लोगों को लगने लगा है कि सारे संकट टल गए हैं और देश प्रगति के स्वर्णिम पथ पर अग्रसर है. इसकी वजह सिर्फ़ मध्यवर्ग का जीवनस्तर सुधरना है जिससे दुनिया में भारत की छवि पर लगा ग्रहण छँटता दिखने लगा है हालांकि वास्तविक समस्याएं अपनी जगह बनी हुई हैं.

बिहार की समस्या भी वैसे ही सुझलेगी और उतनी ही सुलझेगी जैसे भारत की सुलझ रही है. पूंजीनिवेश, उद्योग, बाज़ार और रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे, मित्तल, जिंदल, अंबानियों को करोड़ों की ख़रीदार आबादी दिखेगी तो छोटे-मोटे सियासी लुच्चों की ज़मीन अपने-आप खिसक जाएगी. करोड़ो की पूंजी का खेल छवि की समस्याएँ दूर कर देगा.यह सब कब और कैसे होगा, देखना काफ़ी दिलचस्प होगा, लेकिन यह होगा ज़रूर.

यह निष्कर्ष भी उतना ही सिंपलिस्टिक है जितना भारत में विकास की अवधारणा. जहाँ से विकास का आइडिया आया है वहीं से एक मिसाल भी लीजिए. अठारहवीं सदी में किसने सोचा था कि अमरीका में मरुस्थल का मारा-हारा बेचारा 'नेवाडा वाला' होना शर्मनाक नहीं रह जाएगा, इज़्ज़त जुआ खिलवाने से भी मिल सकती है. बिहार के लिए विकल्पों की क्या कमी हो सकती है.

जब देश के दूसरे हिस्सों के लोग मोटी तनख्वाह पर कार्पोरेट नौकरी के लिए बिहार जाएँगे तो सच मानिए, बिहार और बिहारी उतने बुरे नहीं लगेंगे. ऐसा होने में जिन्हें शक है क्या उन्होंने सोचा था कि भारत में अंगरेज़ और अमरीकी वर्क परमिट लेकर नौकरी करने आएँगे, उनसे पूछिए भारत और भारतीय कितने अच्छे लग रहे हैं आजकल.

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